How to perform Chitragupta Puja

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Puja Items

Sandalwood paste, til, camphor/kapoor, paan, sugar, paper, pen, ink, ganga water, unbroken rice, Cotton, Honey, Yellow Mustard, Plate Made Of Leaves, puja platform, dhoop, youghurt, sweets, puja cloths, milk, seasonal friuts, panchpatra, gulal (colour powder), brass katora, tulsi leaves, roli, keasar, betul nut, match box, frankincense and deep. 

 
Puja Process

First clean the puja room and then bathe Chitragupt Ji's idol or photo first with water, then with panchamitra or rose water, followed by water once more. Now put deepak (lamp) of ghee in front of the Chitragupt Ji. Make a panchamrita with 5 ingredients of milk, curd, ghee (clarified butter), sugar & honey. Place few mithais, snacks & fruits as a prashad. Make guraadi (Gur + Adi = Molasses + Ginger). Make offerings of flowers, abir (red colour), sindoor (vermillion) and haldi (turmeric). Light the agarbatti (incense sticks) and lamps filled with ghee. Read the holy book of Chitragupta puja.

After the completion of katha, perform aarti. Now take plain new paper & make swastik with roli-ghee, then write the name of five god & goddess with a new pen. Then write a "MANTRA (Given Below)" & write your name, address (permanent & present), date (hindi date) your income & expenditure. Then fold the the paper & put before Chitragupt Ji.

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भगवान चित्रगुप्‍त पूजन विधि

  नमो भगवते चित्रगुप्‍तदेवाय का आवाहन करते हुये धूप, दिप, चन्‍दन, लाल पुष्‍प से पूजन करें श्रद्धानुसार नैवैद्य, खील, भुने चनें, मिठाई, ऋतुफल का प्रसाद चढायें। एक कलम बिना चिरी लेकर दवात में पवित्र जल छिडकते हुये प्रभु को ध्‍यान करें।

स्‍वास्थिवाचन
ॐ गणना त्‍वां गणपति हवामहे, प्रियाणां त्‍वां प्रियपत हवामहें निधीनां त्‍वां निधिपते हवामहें वसो मम आहमजानि गर्भधामा त्‍वमजासि गर्भधम ।
ॐ गणपत्‍यादि पंचदेवा नवग्रहा:इन्‍द्रादि दिग्‍पाला: दुर्गादि महादेव्‍य:  इहागच्‍छत स्‍वकीयां पूजां ग्रहीत भगवत: चित्रगुप्‍त देवस्‍य पूजमं विध्‍नरहितं कुरूत।

ध्‍यान
तच्‍छरी रान्‍महाबाहु:श्‍याम कमल लोचन:कम्‍वु ग्रीवोगूढ शिर: पूर्ण चन्‍द्र निभानन:।।
काल दण्‍डोस्‍त्‍वोवसो हस्‍ते लेखनी पत्र संयुत:। नि:मत्‍य दर्शनेतस्‍थौ ब्रहमणोत्‍वयक्‍त जन्‍मन:।।
लेखनी खड्गहस्‍ते च- मसि भाजन पुस्‍तक:। कायस्‍थ कुल उत्‍पन्‍न चित्रगुप्‍त नमो नम:।।
मसी भाजन संयुक्‍तश्‍चरोसि त्‍वं महीतले । लेखनी कठिन हस्‍ते चित्रगुप्‍त नमोस्‍तुते।।
चित्रगुप्‍त नमस्‍तुभ्‍यं लेखकाक्षर दायक । कायस्‍थ जाति मासाद्य चित्रगुप्‍त मनोस्‍तुते।।
योषात्‍वया लेखनस्‍य जीविकायेन निर्मिता । तेषा च पालको यस्‍भात्रत: शान्ति प्रयच्‍छ मे।।

आवाहन
दोनो हाथ जोडकर प्रभु चित्रगुप्‍त जी से प्रार्थना कीजिये के हे प्रभु जब तक मैं आपकी पूजा करूं तब तक प्रभु आप यहां विराजमान रहिये।
ॐ आगच्‍छ भगवन्‍देव स्‍थाने चात्र स्थिरौ भव ।
यावत्‍पूजं करिष्‍यामि तावत्‍वं सन्निधौ भव ।  ॐ भगवन्‍तं श्री चित्रगुप्‍त आवाहयामि स्‍थापयामि ।।
 
आसन
हे प्रभु चित्रगुप्‍तदेव आपका सेवक आवके समक्ष यह आसन समर्पित करता है, कृपया इसे स्‍वीकार करें :-ॐ इदमासनं समर्पयामी । भगवते चित्रगुप्‍त देवाय नम: ।।

पाद्य
हे प्रभु चित्रगुप्‍त आपके चरण कमल धोने के लिये मैं जल समर्पित करता हूं इसे स्‍वीकार करें :-
पादयो: पाद्यं समर्पयामी । भगवते चित्रगुप्‍त देवाय नम: ।।

आचमन
हे देवाधिदेव प्रभु चित्रगुप्‍त भगवान यह पवित्र जल आचमन के लिये प्रस्‍तुत करता हूं इसे स्‍वीकार करें :-
ॐ मुखे आचमनीयं समर्पयामि । भगवते चित्रगुप्‍ताय नम: ।।

स्‍नान
हे सनातन देव आप ही जल है, पृथ्‍वी है, अग्नि और वायु है यह सेवक जीवन रूपी जल आपके स्‍नान हेतु समर्पित करता है इसे स्‍वीकार करें :-
ॐ स्‍नानार्थ जलं समर्पयामि । भगवते श्री चित्रगुप्‍ताय नम: ।।  

वस्‍त्र
हे देवादिदेव, विज्ञान स्‍वरूप प्रभु चित्रगुप्‍त जी आपके चरणों में यह सेवक तुच्‍छ वस्‍त्र भेंट करता है इन्‍हें स्‍वीकार किजियें :-
ॐ पवित्रों वस्‍त्रं समर्पयामि । भगवते श्री चित्रगुप्‍त देवाय नम: ।।  

पुष्‍प
हे परम उत्‍तम दिव्‍य महापुरूष प्रभु चित्रगुप्‍त भगवान आपके श्री चरणों में यह सेवक सुगन्धित पुष्‍प अर्पित करता है इन्‍हे स्‍वीकार कीजियें :-
पुष्‍पमालां च समर्पयामि । भगवते श्री चित्रगुप्‍तदेवाय नम: ।।

धूप
हे अर्न्‍तयामी देव आपके श्री चरणों में यह सेवक सुगन्धित धूप प्रस्‍तुत करता है, इसे स्‍वीकार कीजियें :-
धूपं माधापयामि । भगवते श्री चित्रगुप्‍तदेवाय नम:।।

दीप
हे देवादिदेव उत्‍तम प्रकाश से युक्‍त अंधकार को दूर करने वाला धृत
एवं बत्‍ती युक्‍त दीप आपके श्री चरणों में प्रकाशमान है इसे स्‍वीकार कीजिये।
ॐ दीपं दर्शयामि । भगवते श्री चित्रगुप्‍त देवाय नम:  

नैवैद्य
हे प्रभु चित्रगुप्‍त जी आपके श्री चरणों में स्‍वादिष्‍ट शुद्ध, मधुर फलों से युक्‍त नैवैद्य समर्पित करता हूं, इन्‍हें स्‍वीकार कीजियें :- 
ॐ नैवैद्य समर्पयामि । भगवते श्री चित्रगुप्‍त देवाय नम: ।।  

ताम्‍बूल- दक्षिणा
हे प्रभु चित्रगुप्‍तजी आपके श्री चरणों में ताम्‍बूल एवं दक्षिणा समर्पित करता हूं, इन्‍हें स्‍वीकार कीजियें ।
ॐ ताम्‍बूलं समर्पयामि । ॐ दक्षिणा समर्पयामि।।  
भगवते श्री चित्रगुप्‍तदेवाय नम:  

लेखनी दवात पूजन
लेखनी दवात पर शुद्ध जल, रोली, चावल, पुष्‍प जल आदि अर्पित करते हुये प्रभु चित्रगुप्‍त जी एवं धर्मराज जी का ध्‍यान कीजिये :- 
 ॐ लेखनी देवते इहागच्‍छ । में पूजां ग्रहाण, आवाहनं करोमि।।

श्री चित्रगुप्‍त जी महाराज वत कथा


श्री नारायण जी चैथे अवतार श्री दत्रात्रेय जी महाराज ने ऋषि मुनियों में श्रेष्‍ठ व पू‍जनिय मुनि पुलिस्‍त जी से पूछा कि हे मुनि क़पया विस्‍तार से बताने की क़पा करे कि संसार की उत्‍प‍त्ति कैसे हुई, कायस्‍थ जाति की उत्‍पत्ति कब और कैसे हुई । प्रभु चित्रगुप्‍त की व़त कथा का क्‍या नियम है तथा इसके करने से थ्क्‍या फल मिलता है यह जानने की मेरीं तीव्र इच्‍छा हैं। श्री पुलिस्‍त मुनि ने कहा कि हे दत्रात्रेय जी अपने बहुत ही महत्‍पूर्ण प्रश्‍न किया हैं, यह प्रश्‍न भीष्‍म पितामह जी ने मुझसे किया था चित्रगुप्‍त जी की व़त कथा के सम्‍बन्‍ध में मैने जो पितामह को बताया था तुम भी ध्‍यानपूवक सूनो। एक समय संसार में सौदास नाम का एक राजा था उसका सारे भूमंडल पर राज्‍य था उस राजा ने समस्‍त राज्‍य में यह आज्ञा कर दी थी कि मेरी प्रजा का कोइ भी मनुष्‍य वेद शास्‍त्र को न हवन या पूजा करें। वह जब भी किसी को यज्ञ हवन या पूजा करते देखता तो उस मनुष्‍य को भॉति भॉति के दण्‍ड देता । उसके राज्‍य में प्रजा राजा के अन्‍याय से बहुत दु-खी थी। चुनांचे प्रजा के संताप से राजा शौदास पागल हो गया राज्‍य करने योग्‍य नहीं रहा तथा पागल होकर आवारा घुमनें लगा। एक समय कार्तिक सुदी 2 को यम द्वितीया के दिन नगर के सब लोग रोली,चावल,फूल,चावल,पान,सुपाडी,आदि पूजा की सामग्री ने पूजा हेतु श्री चित्रगुप्‍त जी महाराज के मन्दिर में इकटठा हो रहे थे। उसी समय पागल हुआ वह शौदास नामी राजा घूमता हुआ मन्दिर पर आ पहुचा। राजा को देख उसके डर के मारे वह प्रजा जो श्री चित्रगुप्‍त जी महाराज की पूजा को वहॉ इकटठी हो रही थी वहॉ से भाग गई और वह पूजा की सब सामग्री मन्दिर पर रही। उस शौदास नामी पागल राजा ने मन्दिर पर आकर फूल चावल आदि उस पूजा सामग्री को लेकर श्री चित्रगुप्‍त जी महाराज के उपर चढाकर उनकी पूजा कर दी। कुछ समय बीतने पर वी शौदास नामी राजा मर गया तो धर्मराज के दूत ने राजा शौदास के प्राण जीव का बॉध कर श्री चित्रगुप्‍त जी महाराज जी के शुभ अशुभ कर्म का विचार कर हिसाब लगाया तो उस राजा का सिवाय उस दिन के कि वह फूल, चावल,आदि जिसको राजा के डर से अन्‍य लोग छोडकर भाग गये थे और राजा ने उन्‍हें श्री चित्रगुप्‍त जी महाराज जी के उपर छोड दिया था और कोई शुभ् कर्म नहीं पाया । तब भी श्री चित्रगुप्‍त ने यमदूतों को आज्ञा दी कि इस राजा के जीव) को विष्‍णुलो‍क में पहचानें , यह जीव स्‍वर्ग के रहेन योग्‍य है। श्री चित्रगुप्‍त जी महाराज की आज्ञा पाकर यमदूतों ने राजा के जीव को विष्‍णुलोक में जा पहुचाया, परन्‍तु उनको श्री चित्रगुप्‍त जी महाराज के न्‍याय पर बडा अचरज हुआ कि उन्‍होने ऐसे पापी राजा को विष्‍णुलोक‍ क्‍यो भेजा। ऐसा चिवार कर वह दूज श्री धर्मराज के पास पहुचे और धर्मराज से कहा कि महाराज शौदास नामी राजा ने जीवन भर कोई शुभ कर्म नहीं किया वह नर्क में जाने योग्‍य था, परन्‍तु श्री चित्रगुप्‍त जी महाराज ने उसे विष्‍णुलोक में निवास दिया हैं। ऐसा न्‍याय करने से तो महराज सब नर्क लोक खाली हो जायेगा और संसारी जीव और अधिक कुकर्म करने लगेंगे। तब श्री धर्मराज ने श्री चित्रगुप्‍त जी महाराज से शौदास के जीव को विष्‍णुलोक भेजने का कारण पूछा और उसके कर्मो का लेखा मालूम किया। तब श्री चित्रगुप्‍त ने राजा क कर्मो का सत्‍य सत्‍य हाल बताया और कहा कि आपने और सब देवताओं ने मुझे यह आर्शीवाद दिया था कि जो कोई तुम्‍‍हारी पूजा करें वह जीव विष्‍णुलोक को प्राप्‍त करने योग्‍य है। चूंकि शौदास ने एक दिन मेरी पूजा की थी इसलिये राजा शौदस को मैनें विष्‍णुलोक भेजा है 1 श्री धर्मराज श्री चित्रगुप्‍त जी महाराज जी की पूजा की बात सुनकर अति प्रसन्‍न हुये। पुलिस्‍त मुनि बोले कि हे दत्रात्रेय भीष्‍म पितामह अकेले धूप दीप से चित्रगुप्‍त जी की पूजा करते थे और श्री चित्रगुप्‍त जी ने इनको यह आर्शीवाद दिया था कि भीष्‍म जी तो तुम चाहते हो तुम्‍हारी इच्‍छा पूर्ण होगी और उसके पीछे आप धर्मलोक में वास करेंगे। श्री दत्रात्रेय जी ने दुनियांदारो की इच्‍छापूरी होने और उनके लाभ की कथा को सुन पुलिस्‍त मुनि को नमस्‍कार किया और फिर वह स्‍वंय चित्रगुप्‍त जी का पूजा में लवलीन हो गये। पुलिस्‍त मुनि ने कहा कि जो भी मनुष्‍य प्रभु चित्रगुप्‍त जी का पूजन करता है वह न सिर्फ विष्‍णुलोक का अधिकारी होता है

अपितु समस्‍त सांसारिक कष्‍टों से छुटकारा भी पाता है। ।। बोलो श्री चित्रगुप्‍त जी महाराज की जय ।। श्री नारायण के चौथे अवतार श्री दयात्रेतय जी ने श्री पुलिस्‍त जी से पुछा कि हे मुनि श्रेष्‍ठ मेरी यह जानने की तीव्र इच्‍छा है कि कायस्‍थ् वर्ण की उत्‍पति कैसे हुई। क़पया विस्‍तार से बताने की क़पा करें। श्री पुलिस्‍त मुनि ने श्री दत्रात्रेय जी से कहा कि आपने बहुत ही श्रेष्‍ठ प्रश्‍न किया हैं, यही प्रश्‍न एक बार गंगापुत्र भीष्‍म ने भी किया था जों मै बताता हूं, ध्‍यान पूर्वक सुनो । देवलोक में ब़हमा जी को चिन्तित मुद्रा में देख नारद जी ब्रहा जी के पास पहुचें और चिन्‍ता का कारण पूछां। ब्रहा जी ने बताया कि स़ष्टि रचना के उपरान्‍त ब्राहम्‍ण ,क्षत्रिय,वैश्‍य, एवं शुद्र आदि को उनके कर्मो के अनुसार फल देने का कार्य धर्मराज जी को सौपा गया था, किन्‍तु म़त्‍यु लोक में निरन्‍तर आबादी बढनें से धर्मराज जी ने अब मुझे सकंट में डाल दिया हैं, स़ष्टिबढ जाने से मनुष्‍य के कर्मो को लेखा जोखा रखना असम्‍भव हो गया है। नारद अब तुम ही कोई उपाय सुझाओं ताकि धर्मराज म़त्‍यु लोक का कार्य सुचारू रूप से कर सकें। नारद जी ने कहा कि हे प्रभु आपकी इस समस्‍रूज्ञ का समाधान तो महाप्रभु विष्‍णु जी के ही पास है, आपको उन्‍हीं का ध्‍यान करना चाहिये। ब्रहा जी महाप्रभु जी की धोर तपस्‍या में लीन हो गये तथा उन्‍होने 11 हजार वर्षो तक तपस्‍या की । तदोपरान्‍त जब ब्रहा जी ने अपने नेत्रों को खोला तो सामने पाया कि अत्‍यन्‍त तेजस्‍वी ,श्‍यामवर्ण, कमल, नयन, चतुर्भज रूप, पीताम्‍बर वस्‍त्रों से सुशोभित , गले में रूद्रास की माला की धारण किये, हाथ में कलम दवात लिये, चन्‍द्रमा के समान सद्रश मुख, अत्‍यन्‍त बुद्विमान एक अलौकिक उत्‍तम पूरूस खडा है। उत्‍तम पूरूस को सामने देख ब्रहा जी अत्‍यन्‍त हर्षित हुये, तथा उन्‍होने पूछा कि हे पुरूषोत्‍तम आप कौन है, तब उन्‍होने बताया कि हे ब्रहा जी आपकी तपस्‍या के दौरान ही मेरी उत्‍पत्ति आपकी काया से हुई है। हे तात़ क़पया मेरा नामकरण कीजिये और मेरे योग्‍य जो सेवा हो उसकी आज्ञा दीजिये। ब्रहा जी अत्‍यन्‍त प्रशन्‍न हुये और उस उत्‍तम पुरूष से कहा कि चूंकि तुम्‍‍हारी उत्‍पत्ति मेरी काया अर्थात शरीर से हुई है, अत- तुम कायस्‍थ वर्ण से जाने जाओगे तथा हमने भगवान विष्‍णु का ध्‍यान अपने चित्‍त में गुप्‍त रखकर किया था और मेरी तपस्‍याकाल में ही तुम आश्‍चर्य रूप में प्रकट हुये हो इस कारण तुम चित्रगुप्‍त नाम से जाने जाओगे । ब्रहा जी ने कहा कि हे उत्‍तम पुरूष आप चारों वेद, छहों, अठारह पुराणों के ज्ञाता हैं, आप प्रभु , शिवजी एवं दुर्गाजी की आराधना कीजिये और वर्णो के कर्मो का हिसाब रखिए।

ब्रहा जी से आज्ञा पाकर चित्रगुप्‍त जी कुटनगर पहुंचे और वहां जाकर उन्‍हानें मां दुर्गा जी की उपासना की । दुर्गा जी ने श्री चित्रगुप्‍त जी को उनकी भक्ति से प्रशन्‍न होकर उन्‍हें लेखन कला की जानकारी दी। लेखन कला की जानकारी प्राप्‍त करने के पश्‍चात़ श्री चित्रगुप्‍त जी अवन्तिकापुर गये जहां उन्‍होनें शिवजी की आराधना की तथा वहीं रहकर उन्‍होनें विधान तैयार किया जिसे सथी देवताओं तथा ऋषियों ने अंगीक़त किया। श्री चित्रगुप्‍त जी ने कार्तिक पक्ष की दुइज के दिन न्‍याय करने का कार्यभार धर्मश्राज के सहायक के रूप में ग्रहण किया। इसी दिन यमराज अपनी बहन जमुना जी के घर गये थे तभी से भाई दुइज की प्रथा प्रचलित हुई। इसी तिथि को यम द्वितीया भी कहा जाता है । दौज पर्व वर्ष में दो बार मनाया जाता है, कार्तिक पक्ष की दुइज एवं चैत्र पक्ष की दुइज की तिथियां भगवान चित्रगुप्‍त जी के पूजन की विशेष तिथि है। महर्षि पुलिस्‍त ने कहा कि संसार को कोई भी प्राणी जो दुइज पर्व पर प्रभु चित्रगुप्‍त जी की पूजा करेगा वह इच्छित स्‍वर्णलोक का अधिकारी होगा। पुलिस्‍त मुनि श्रेष्‍ठ कायस्‍थ वर्ण उत्‍पत्ति का व़तान्‍त सुनाते हुये बताते है कि एक समय सूर्य नारायण अपनी पत्‍नी तथा सुशर्मा ऋषि की पुत्री शोभावती के साथ अवन्तिकापुर पहुंचे जहां उन्‍हानें चित्रगुप्‍त जी को भगवान शिवजी की अराधना में ध्‍यान मग्‍न देखा। शोभावती चित्रगुप्‍त जी पर मोहित हो गयी। सूर्यदेव तथा उनकी पत्‍नी शोभावती की इच्‍छा शक्ति को भांप गये तब उन्‍होनें शोभावती को समझाया कि वह पार्वती का पूजन करें तभी उनको मन वांछित फल प्राप्‍त होगा। श्री चित्रगुप्‍त जी को अर्न्‍तयामी भी कहा गया हैं क्‍योकि म़त्‍यु लोक के असंख्‍य प्राणियों के जन्‍म म़त्‍यु का लेखा- जोखा रखना उनके कर्मो के अनुसार फल देना आदि इत्‍यादि कार्य साधारण के लिये सम्‍भव नहीं था इसलिये श्री चित्रगुप्‍त जी को महाप्रभु विष्‍णुजी का दुसरा रूप कहा गया है।

एक समय की बात है शिवजी अपनी अर्धागिनी पार्वती के साथ् विचरण् करते हुये सूर्यलोक पहुंचे जहां उन्‍होने अत्‍यन्‍त सुशील, रूपवती , गुणवती, कन्‍या को देखकर सूर्यदेव से सारा व़तान्‍त कह‍ सुनाया। भगवान शिव ने कहा के इस कन्‍या के लिये चित्रगुप्‍त जी से अधिक उत्‍तम और कोई वर नहीं होगा, वहीं शोभावती (इरावती) के लिये श्रेष्‍ठ वर है। शिवजी सूर्यदेव को साथ लेकर सुशर्मा ऋषि के पास गये तथा उन्‍हें सारा व़तान्‍त बताया , यह सुनकर सुशर्मा ऋषि अत्‍यन्‍त प्रशन्‍न हुये तथा सुशर्मा ऋषि , सूर्यदेव , ब़हमाजी तथा समस्‍त देवताओं तथा अठासी हजार ऋषियों को लेकर चित्रगुप्‍त जी के पास गये तथा चित्रगुप्‍त जी का विवाह शोभावती (इरावती) के साथ कराया। सभी ऋषियों एवं विधिवत चित्रगुप्‍त जी का यज्ञोपवीत करायाद्य सभ्‍ज्ञी त्रषिया एवं देवताओं ने हर्षित होकर पुष्‍पवर्षा की । चित्रगुप्‍त जी के विवाह के अवसर पर सूर्यदेव की पौत्री नन्दिनी (सुदक्षिणा) भी उपस्थित थी जो मन ही मन इस विवाह को देखकर सोच रही थी कि काश मेरा विवाह भी चित्रगुप्‍त जी से हो जाता तो कितना अच्‍छा होता । भगवान शिवजी एवं ब्रहाजी नन्दिनी की इच्‍छा शथ्ति को भंप गये तथा यह बात उन्‍होने सूर्य नारायण को बताई कि उन्‍हें अपनी पौत्री नन्दिनी का विवाह भी चित्रगुप्‍त जी के साथ कर देना चाहिये, तब श्राद्वदेव मनु की पुत्री नन्दिनही का विवाह भी सभी देवताओं एवं ऋषियों की उपस्थिति में श्री चित्रगुप्‍त जी के साथ सम्‍पन्‍न कराया गया तथा सभी देवताओं ने हर्षित होकर पुष्‍प वर्ष की ।
श्री चित्रगुप्‍त जी की पत्‍नी नन्दिनी ( सुदक्षिता ) से चार पुत्र क्रमश
1.धर्मध्‍वज ( श्रीवास्‍तव )
2. रामदयाल (सक्‍सैना)
3. योगाधर(माथुर)
4. भानुप्रकाश (भटनाकर) हुये।
शोभावती (इरावती) से आठ पुत्र क्रमश
1. श्‍याम सुन्‍दर (सुरज ध्‍वज)
2. सुमति (निगम)
3. सदानन्‍द (कुलश्रेष्‍ठ)
4. दामोदर (कर्ण)
5. धर्मदत्‍त (गौण)
6. दीनदयाल (अष्‍ठाना)
7. शार्ड् गधर ( अम्‍बष्‍ट) एवं
8. राधौराम ( बाल्‍मीकि) हुये।
चित्रगुप्‍त के सभी पुत्रों का उपनयन ( यज्ञोपवीत) संस्‍कार कश्‍यप जी के द्वारा कराया गया तथा सभी पुत्रों का विधाश्‍ययन 5 वर्ष की आयु में शुरू हुआ। श्री ब़हस्‍पति जी की छत्रछाया में सभी यथासमय सभी पुत्रों को बुलाकर उपदेश दिया कि हे पुत्रों तुम अपनी लेखन गणक व़त्ति रखना शास्‍त्र को अपनी जीविका ही नहीं अपितु युद्वादि समय में शास्‍त्र धारण कर युद्व भी करना , अपने शस्‍त्र तो कभी न छोडना । विधा के अभाव को अपने जीवन में कभी अंदर न आने देना, देवताओं का पूजन , ब्रहामणों का पोष्‍ज्ञझा तथा उनका आदर करना ताकि तीनों लोकों का कल्‍याण हो। इस प्रकार उपदेश देकर सभी को विभिन्‍न क्षेत्रों में म़त्‍युलोक भेजा जहां बारह भाई विभिन्‍न क्षेत्रों में जाकर बस गये।

श्री चित्रगुप्‍त जी ग़हस्‍त धर्म त्‍याग कर परमेश्‍वर की आज्ञा पाकर धर्मराज की सेवा में यमपुरी पहुंचें जहां धर्मराज ने सिहांसन से उठाकर प्रेम से चित्रगुप्‍त जी को हदय से लगा लिया तथा रन्‍नजडित मुकुट पहनाकर सिंहासन पर बैठाया। तदोपरान्‍त श्री चित्रगुप्‍त जी अपने कार्य में तल्‍लीन हो गयें।